Home Travel Story दिल्ली से अजंता एलोरा की गुफा होते हुए शिर्डी दर्शन की कहानी

दिल्ली से अजंता एलोरा की गुफा होते हुए शिर्डी दर्शन की कहानी

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घूमना घूमना और सिर्फ घूमना… इस दुनिया कि सारी चीज़ों को अपने आखों से देखने की चाहत और उस एक चाहत को पूरी करने की पहल अपने आप में एक सुखद एहसास कराती है। मेरी भी सिर्फ एक ही तमन्ना है इस ज़िन्दगी में..वो है पूरी दुनिया घूमकर सारे जहां को बताऊं कि अगर आपने ये नहीं देखा तो शायद कुछ भी नहीं देखा… इसी घुमक्कड़ श्रृंखला कि एक छोटी से क़िस्त आपके सामने है… किसी एक जगह का नाम तो नहीं लिख सकता…क्योंकि जगह कई है जहां मैं इतने कम समय में घूमकर आ गया… चलिए लेकर चलते है आपको घुमक्कड़ की उस दुनिया में जहां सिर्फ असल मायनों में ज़िन्दगी बसती  है। जहां जाकर आप अपनी हर टेंशन को जाएंगे भूल।

चार दिन की छुट्टी संजोकर मैं निकल पड़ा अपनी मंज़िल कि ओर…

इस बार मेरी मंजिल का पहला पड़ाव था अजंता कि वो अद्धभूत गुफाए जिसे देखने कि चाह बरसो से थी। दिल्ली से अजंता जाने के लिए मैंने ट्रेन ली जलगांव तक जिसका स्लीपर से किराया लगभग 600 रुपये और AC का किराया करीब 1500। अगर आप दिल्ली से अजंता जा रहे है तो नजदीकी रेलवे स्टेशन जलगांव है। जहां से अजंता कि दूरी लगभग 60 किलोमीटर है।

रात को 9 बजे मैं दिल्ली से चलने वाली कर्नाटक एक्सप्रेस में सवार होकर निकल पड़ा अपने सुहाने सफर की ओर… करीब 16 से 17 घंटे के सफर के बाद मैं दोपहर में जलगांव स्टेशन पंहुचा।

स्टेशन से बाहर पहुंच कर मैंने बस स्टैंड के लिए शेयरिंग ऑटो लिया जिसका किराया करीब 10 रुपये था फिर बस स्टैंड से औरंगाबाद जाने वाली बस पर बैठ गया क्योंकि औरंगाबाद जाने वाली बस अजंता गुफाएं होते हुए जाती है। जिसका किराया सिर्फ 63 रुपए था।

 

2 घंटे के बस के सफर के दौरान मेरी वहां के कई लोकल लोगों से बात हुई। जिन्होंने मुझे कई सफर में काम आने वाली टिप्स के साथ-साथ वहां के राजनैतिक समीकरणों और किसानों की समस्या के बारें में भी अच्छी तरह से बताया और बातों ही बातों में कब 1 घंटे 30 मिनट का वक़्त ख़त्म हो गया पता ही नहीं चला।

बस से उतर गया और सामने मेरी पहली मंज़िल अजंता कि गुफाए थी जल्दी से 30 रुपये का टिकट लिया और निकल पड़ा मेरे पास वक़्त बहुत कम था और देखने समझने के लिए बहुत कुछ।

 

अजंता कि गुफाए

तकरीबन 29 चट्टानों को काटकर बना बौद्ध स्मारक गुफाएं जो द्वितीय शताब्दी ई॰पू॰ के हैं। यहां बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्रण एवम् शिल्पकारी के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं। सन् 1983 में युनेस्को ने अजंता गुफाओं को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। ये गुफाये घोड़े के नाल आकार घाटी में बनी हुई है।

Ajanta caves

ये गुफाये घोड़े के नाल आकार घाटी में बनी हुई है।

शाम हो चुकी थी मुझे निकल कर जल्दी से बस पकड़ के औरंगाबाद पहुंचना था पर वहां मेरी मुलाकात 3 लोगो के एक ग्रुप से हुई और उन्होंने में औरंगाबाद तक लिफ्ट देने कि हामी भरी और मैं भी  चल पड़ा उन अनजान लोगो के साथ…(पर आप लोग कभी किसी अनजान के साथ उसकी गाडी में सफर मत करियेगा) खैर मेरी बात और है और हमने शाम को सिल्लोड नामक जगह पर रात में रुकने का निर्णय लिया। होटल लिया और वही रुककर रात को महाराष्ट्रियन खाने में सेव भाजी और रोटी का आनंद लिया। जो कि बहुत ही खास था।

दिनभर कि थकान के कारण जल्दी नींद आ गई सुबह जब उठा तो सब तैयार हो गए थे अरे सब में मेरे नए दोस्त उन्होंने में एल्लोरा चलने का फैसला कर लिया था जिसकी वजह से मेरा सफर आसान और आरामदायक बन चुका था। फिर हम निकले रास्ते में दौलताबाद फोर्ट…अरे वही तुग़लक़ वाला जिसने दिल्ली से दौलताबाद अपनी राजधानी बनाई थी यहां से होते हुए हम एल्लोरा पहुंच गए।

एलोरा गुफाएं

एलोरा या एल्लोरा (मूल नाम वेरुल) एक पुरातात्विक स्थल है जो महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले से करीब 33 किलोमीटर दूर वेरुल में स्थित है। इन्हें राष्ट्रकूट वंश के शासकों द्वारा बनवाया गया था। स्मारक गुफाओं के लिए प्रसिद्ध, एलोरा युनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। एलोरा भारतीय पाषाण शिल्प स्थापत्य कला का सार है, यहाँ 34 गुफ़ाएं हैं जो असल में एक ऊर्ध्वाधर खड़ी चरणाद्रि पर्वत का एक फ़लक है।

इसमें हिन्दू, बौद्ध और जैन गुफ़ा मन्दिर बने हैं। ये पांचवीं और दसवीं शताब्दी में बने थे। यहां 12 बौद्ध गुफ़ाएँ (1-12), 17 हिन्दू गुफ़ाएं (13-29) और 5 जैन गुफ़ाएं (30-34) हैं।

दुर्गम पहाड़ियों वाला एलोरा 600 से 1000 ईसवी के काल का है, यह प्राचीन भारतीय सभ्यता का जीवन्त प्रदर्शन करता है। बौद्ध, हिन्दू और जैन धर्म को भी समर्पित पवित्र स्थान एलोरा परिसर न केवल अद्वितीय कलात्मक सृजन और एक तकनीकी उत्कृष्टता है, बल्कि यह प्राचीन भारत के धैर्यवान चरित्र की व्याख्या भी करता है।

इन्ही गुफाओं में स्थित कैलाश मंदिर विश्व में अपने ढंग का अनूठा वास्तु जिसे मालखेड स्थित राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण (प्रथम) (760-753 ई0) में निर्मित कराया था। बाहर से मूर्ति की तरह समूचे पर्वत को तराश कर इसे द्रविड़ शैली के मंदिर का रूप दिया गया है।

अपनी समग्रता में 276 फीट लम्बा, 154 फीट चौड़ा यह मंदिर केवल एक चट्टान को काटकर बनाया गया है। जो कि अपने आपपर अद्भुत था। आपको यह बातक और हैरानी होगी कि इसका निर्माण ऊपर से नीचे की ओर किया गया है।

इसके निर्माण के क्रम में अनुमानत: 40 हज़ार टन भार के पत्थरों को चट्टान से हटाया गया। इसके निर्माण के लिये पहले खंड अलग किया गया और फिर इस पर्वत खंड को भीतर बाहर से काट-काट कर 90 फुट ऊंचा मंदिर गढ़ा गया है। मंदिर भीतर बाहर चारों ओर मूर्ति-अलंकरणों से भरा हुआ है। इस मंदिर के आंगन के तीनों ओर कोठरियों की पांत थी जो एक सेतु द्वारा मंदिर के ऊपरी खंड से संयुक्त थी। यह कृति भारतीय वास्तु-शिल्पियों के कौशल का अद्भुत नमूना है।

एलोरा गुफा नंबर 10

मुग़ल बादशाह औरंगजेब की कब्र

शाम को निकलते वक़्त हम पहुंचे मुग़ल सल्तनत के सबसे ज़्यादा 50 साल राज करने वाले शहंशाह औरंगज़ेब कि कब्र पर जो वहीं खुल्दाबाद में उनकी खवाहिश के मुताबिक बड़ी सादगी में उनके धर्म गुरु सैय्यद जैनोद्दीन शिराजी के करीब बनाई गई। यही उनके बेटे आज़म शाह कि भी कब्र हैं फिर वहा से औरंगाबाद।

 

 

 

बीवी का मकबरा

बीवी का मक़बरा

औरंगाबाद भी कुछ इमारतों के कारण काफी फेमस है। इसमें सबसे खास है ताजमहल। जी हां आप सोच में पड़ गए न कि ताजमहल तो आगरा में है, तो यह औरंगाबाद क्यों पहुंच गया। तो हम आपको बताते है इसके बारें में विस्तार से… हिंदुस्तान में 2 ताजमहल हैं एक शाहजहां ने बनवाया आगरा में दूसरा औरंगज़ेब के बेटे आज़म शाह ने अपनी मां दिलराज बानू बेगम (राबिया-उद-दौरानी) की याद में बनाया था। और इसे बीवी का मक़बरा (Taj of the Deccan ) नाम से सब जानते हैं।

इतिहासिक तथ्यों के अनुसार इसका निर्माण संभवतः ई.स. 1651 और 1661 के बीच किया गया था। बीबी के मकबरे को आर्किटेक्ट अत-उल्लाह ने डिज़ाइन किया था। अत-उल्लाह उस्ताद अहमद लाहौरी का बेटा था जिन्होंने ताज महल को डिज़ाइन किया था।

जितना यह ताजमहल भव्य है। उतनी ही इसको बनाने रकी कहानी रोचक है। सैय्यद जैनोद्दीन शिराजी के मजार के खादिम ने बताया कि ‘बीवी का मक़बरा’ को आज़मशाह बहुत ही भव्य बनाना चाहता था परंतु बादशाह औरंगजेब द्वारा दिए गए खर्च में वह मुमकिन नहीं हो पाया और उन्होंने अपनी पत्नी के सोने के कंगन तक बेच दिए थे।

ग़ुलाम मुस्तफा की रचना “तारीख नाम” के अनुसार इसके निर्माण का व्यय 6,68,203.7 रुपये हुआ था।

ढ़ेर सारी जानकारिया हासिल करने के बाद हम वहा से शिरडी के लिए निकले… रात शिरडी में बिताने के बाद सुबह साई बाबा के दर्शन किये और मनमाड से ट्रेन लेकर वापस दिल्ली…

ये थी मेरी छोटी सी यात्रा… जो कि आगे भी जारी रहेगी.

 

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